नीतीश कुमार ने समाजवाद, परिवारवाद की जगह किया जातिवाद,पढ़िए पूरी रिपोर्ट

समाजवादियों का उत्तराधिकारी बतानेवाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार परिवारवाद में तो नहीं फंसे, मगर जातिवादी राजनीतिक का सूत्रपात कर बैठे। रविवार को जदयू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उन्होंने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार करते हुए स्वजातीय व राजनीति में कम अनुभव रखनेवाले आरसीपी सिंह (रामचंद्र प्रसाद सिंह) को अपनी राजनीतिक विरासत सौंप दी।

नीतीश समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद, रामविलास पासवान और बीजू पटनायक की परिवारवाद की राजनीति का विरोध करते रहे। अब उन्होंने पार्टी के समर्पित वरिष्ठ समाजवादी नेता वशिष्ठ नारायण सिंह और केसी त्यागी को दरकिनार करते हुए आरसीपी को पार्टी की कमान सौंपी है।

नीतीश खुद को समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया और कर्पूरी ठाकुर की तरह वंशवाद और जातिवाद का विरोधी बताते रहे हैं। उन्होंने देश के समाजवादियों की लौ जगाने के लिए राजस्थान के बांसवाड़ा में मामा बालेश्वर दास के कार्यक्षेत्र में लोगों को जोड़ने का काम किया। उन्होंने मध्यप्रदेश, लक्षद्वीप, कर्नाटक, मणिपुर और छत्तीसगढ़ में भी समाजवाद की मशाल जलाने की भी कोशिश की।  नीतीश ने जदयू के लिए अपने उत्तराधिकारी की घोषणा तो कर दी है, मगर इसी के साथ समाजवाद के दामन पर जातिवाद के दाग भी गहरे कर दिए। अरसे से ये सवाल तैर रहा था कि नीतीश कुमार के बाद जदयू का नेतृत्व कौन संभालेगा।

यह दलील भी दी जी रही थी कि नीतीश परिवारवाद के सख्त विरोधी हैं और वह बेटे निशांत को अपनी राजनीतिक विरासत नहीं सौंपेंगे। नीतीश की छवि को मजबूत करने में इस दलील की बड़ी भूमिका रही है। लेकिन क्या ये सच है कि नीतीश कुमार अपने बेटे निशांत को अपनी राजनीतिक विरासत सिर्फ इसलिए सौंपना नहीं चाहते हैं कि इससे परिवारवाद बढ़ेगा।

नीतीश को बेहद करीब से जानने वाले उनके अपने गांव के लोग ऐसा नहीं मानते हैं। नाम नहीं छापने की शर्त पर नालंदा के कल्याणबिगहा गांव के लोग बताते हैं कि नीतीश के बेटे का झुकाव आध्यात्म की तरफ है। वे दर्शन की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं।

स्वास्थ्य कारणों से भी वह राजनीति के लिए खुद को फिट नहीं मानते। निशांत को नीतीश कुमार की राजनीतिक विरासत संभालने की पहल भी की गई। गांववालों की मानें तो अगर निशांत आध्यात्म के साथ-साथ सांसारिक जीवन से ठीकठाक तालमेल बनाते तो संभव था कि उन्हें ही नीतीश की राजनीतिक विरासत संभालने का मौका मिलता। अब आरसीपी सिंह नीतीश की विरासत संभालेंगे।

दरअसल, बिहार की राजनीति में जातीय समीकरण को मजबूत करने के लिए सोशल इंजीनियरिंग शब्द का इस्तेमाल पहली बार नीतीश कुमार ने ही किया। अंग्रेजी में बोले गए इस शब्द के जरिए जातिवाद को और गहरा किया गया और जातीय समीकरण साधकर नीतीश ने खुद को मजबूत बनाए रखा। नीतीश खुद कुर्मी जाति से आते हैं। कुर्मी जाति की आबादी भले ही कम है लेकिन पटना और उसके आसपास के जिलों में कुर्मी बेहद प्रभावशाली हैं।

कहीं तो बेहद दबंग भी। 1977 में बिहार का पहला नरसंहार पटना से सटे में बेलछी में हुआ था। इस नरसंहार को अंजाम देने वाले प्रमुख आरोपी कुर्मी जाति के ही थे। 1994 के आसपास नीतीश के नेतृत्व में कुर्मी जाति पूरी तरह से गोलबंद हुई और आज तक गोलबंद है।

बाद में नीतीश ने सोशल इंजीनियरिंग के जरिए दलित, महादलित, कुशवाहा, अति पिछड़ी जातियों के एक बड़े समूह और सवर्ण भूमिहारों को अपने पक्ष में किया। हालांकि, जब बारी राजनीतिक विरासत सौंपने की आई तो नीतीश कुमार ने स्वजातीय आरसीपी सिंह को आगे किया। 

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